देवीपाटन मंदिर,
तुलसीपुर, बलरामपुर (उत्तर प्रदेश)
देवीपाटन मंदिर में स्थित जगदमाता पाटेश्वरी अपने
अलौकिक इतिहास को समेटे हुए है। युगों-युगों से ऋषि-मुनियों के तप व वैराग्य का
साक्षी रहा यह स्थल अपने अतीत की गौरव गाथा खुद बयां करता है। यह ऐतिहासिक मंदिर
उत्तर भारतमें नेपाल सीमा से सटे बलरामपुर जिले के जनपद मुख्यालय से लगभग तीस
किलोमीटर तुलसीपुर तहसील के सूर्या (सिरिया) नदी के तट पर पाटन गांव में स्थित है।
ग्राम पंचायत देवीपाटन में प्राकृतिक छटा के बीच स्थित माँ पाटेश्वरी देवी का यह
मंदिर हजारों वर्षो से भक्तों के आस्था व विश्वास का केन्द्र बना हुआ है। विश्व
प्रसिद्ध मंदिर को कई पौराणिक कथाओं के साथ सिद्धपीठ होने का गौरव प्राप्त है।
यहां देश-विदेश से आने वाले भक्तों का तांता बारह महीने लगा रहता है। साल में दो
बार चैत्र व शारदीय नवरात्रपर यहां विशेष उत्सव के साथ मेला लगा रहता है। इस समय
माता के दर्शनार्थियों व उनके आशीषाभिलासियों की विशाल भीड़ रहती है।
51 शक्तिपीठों में से एक
मां सतीऔर सीताकी शक्तियों से परिपूर्ण देवीपाटन मंदिर अपने गौरवमयी इतिहास को समेटे हुए है। लोगों की श्रद्धा है कि यहां विद्यमान सूर्यकुंड, त्रेतायुगसे जल रहा अखंड धूना व अखंड ज्योति में मां दुर्गाके शक्तियों का वास है और इतिहास गवाह है कि सिद्ध रत्ननाथ( नेपाल) व गुरु गोरखनाथ को सिद्धि भी यहीं प्राप्त हुई थी। कण-कण में देवत्व का वास होने से इस मंदिर पर देश-विदेश (विशेष रूप से नेपाल) से लाखों श्रद्धालु मनोकामना पूर्ण करने के लिए अनुष्ठान व्रत एवं पूजन करते हैं। वर्तमान समय में माँ पाटेश्वरी देवी का यह मंदिर 51 शक्तिपीठोंमें से एक है। इसका अपना एक विशेष महत्व है। कन्या कुमारी से लेकर बंगाल, बिहारसहित पड़ोसी देश नेपाल तक के श्रद्धालु अपनी मनोकामना पूरी करने के लिए इस मंदिर पर अपना मत्था टेकने आते हैं। मंदिर पर मुख्यतः प्रसाद के रूप में चुनरी, नारियल आदि चढ़ाया जाता है। मन्दिर की विशिष्टता की ही वजह से इसे देवी पाटन के नाम से भी जाना जाता है।
देवी का प्रतिमा
पाटेश्वरी मंदिर के अंत:कक्ष: में कोई प्रतिमा नहीं है। वरन चांदी जड़ित गोल चबूतरा है, जिस पर कपडा बिछा रहता है। उसी के ऊपर ताम्रछत्र है। जिस पर पूरी दुर्गा सप्तसती के श्लोक अंकित है। उसके नीचे अनेक रजत छत्र है। वहां घी की अखण्ड दीपज्योति जलती रहती है। मंदिर की परिक्रमा में मातृ्गणों के यंत्र विधमान है। मंदिर के उत्तर में सूर्यकुण्ड है, जहां रविवारको षोडशोपचार पूजन करने से कुष्ठरोगका निवारण होता है। तथा अखण्ड धूनी भी जलती रहती है। देवीपाटन मंदिर में शैलपुत्री, ब्रह्मचारिणी, चन्द्रघंटा, कूष्मांडा, स्कन्दमाता, कात्यायनी, कालरात्रि, महागौरी तथा सिद्धीदात्रीनौ दुर्गा की प्रतिमायें स्थापित है। इस शक्तिपीठ में स्थापना काल से ही दीपक प्रज्ज्वलित हो रहा है जिसे अखण्ड ज्योति कहा जाता है। शारदीय नवरात्रि के प्रथम दिन से ही पड़ोसी देश नेपाल व देश के कई क्षेत्रों से आये देवीभक्त नारियल, चुनरी, लावा, नथुनी, सिन्दूर, मांगटीका, चूड़ी, बिछिया, पायल, कपूर, धूप, लौंग, इलाइची, पुष्प, चरणामृत और प्रमुख रुप से रोट का प्रसाद चढाकर मां का शृंगार करने के साथ हवन पूजन वैदिक रीति से करते हैं। वर्तमान में नाथ सम्प्रदाय के मंहथ योगी कौसलेन्द्रनाथ जी महाराज यहां के महंत व व्यवस्थापक है।
पौराणिक कथाएँ
पाटेश्वरी देवी के नाम से विख्यात इस मंदिर का इतिहास रोचकता व चमत्कारों से भरा है। लोकश्रुति के अनुसार त्रेतायुगमें भगवान श्रीरामअपनी अर्धांगिनी देवी सीताको राक्षस रावणके संहार के बाद जब अयोध्यालाये तो उन्हें पुन: अग्नि परीक्षा देनी पड़ी। हालांकि लंकामें ही उन्होंने अग्निमें प्रवेश कर परीक्षा दे दी थी। सीता को काफ़ी दु:ख हुआ। माता सीता ने अपनी माता धरती से विनय किया कि यदि वह वास्तव में सतीहैं तो यहीं धरती फट जाएं एवं धरती माता उन्हें अपने में समाहित कर लें। इतना कहते ही ज़मीन फट गयी और एक सिंहासन पर बैठकर धरती मां पाताल लोक से ऊपर आयीं। अपनी धरती मां के साथ सीता जी भी पाताललोक चली गयीं। इसलिए इस स्थान का नाम पातलेश्वरी देवी पड़ा, जो कालांतर में पाटेश्वरी देवी नाम से विख्यात हुआ। इस तरह देवीपाटन सिद्ध योगपीठ तथा शक्तिपीठ दोनों है। इसी गर्भगृह पर माता का भव्य मंदिर बना हुआ है। आज भी मंदिर में पाताल तक सुरंग बताई जाती है, जो चांदीके चबूतरे के रूप में दृष्टिगत है। गर्भगृह के ऊपर मां पाटेश्वरी की प्रतिमा व चांदी का चबूतरा के साथ कई रत्नजडित छतर है और ताम्रपत्र पर दुर्गा सप्तशती अंकित है। प्रसाद पहले इसी चबूतरे पर चढ़ाया जाता था लेकिन सुरक्षा की दृष्टि से अब प्रसाद बाहर चढ़ाया जाता है। चबूतरे के पास एक भव्य दुर्गा प्रतिमा स्थापित है।
{✨}~ भगवान शिव को क्रोध शाँति करने के लिए भगवान विष्णु ने लोकहित में अपने सुदर्शन चक्रसे सती के अंगों को 51 भागों में काटकर शिव से अलग कर उनके मोह को शान्त किया। इस दौरान महादेवी सती के कटे अंग व वस्त्र जिन-जिन स्थानों पर गिरे, उन्हें सिद्ध शक्तिपीठ माना गया। इस तरह 51 शक्तिपीठ हैं। लेकिन उपवस्त्रों, उपांगों और आभूषणों के गिरने के स्थानों को मिलाकर ऐसे स्थानों की संख्या 108 है। उन्हीं शक्ति पीठों में से यह एक है। देवीपाटन मंदिर में सती का बायां कंधा वस्त्र (वाम स्कंध वस्त्र) सहित गिरा था, जो सिद्ध शक्तिपीठ कहलाया। इस बात की पुष्टि शास्त्र में उल्लिखित इस श्लोक से होती है -
'पटेन सहित: स्कन्ध:, पपात यत्र भूतले।
तत्र पाटेश्वरी नाम्ना, ख्यातिमाप्ता महेश्वरी।।'
51 शक्तिपीठों में से एक
मां सतीऔर सीताकी शक्तियों से परिपूर्ण देवीपाटन मंदिर अपने गौरवमयी इतिहास को समेटे हुए है। लोगों की श्रद्धा है कि यहां विद्यमान सूर्यकुंड, त्रेतायुगसे जल रहा अखंड धूना व अखंड ज्योति में मां दुर्गाके शक्तियों का वास है और इतिहास गवाह है कि सिद्ध रत्ननाथ( नेपाल) व गुरु गोरखनाथ को सिद्धि भी यहीं प्राप्त हुई थी। कण-कण में देवत्व का वास होने से इस मंदिर पर देश-विदेश (विशेष रूप से नेपाल) से लाखों श्रद्धालु मनोकामना पूर्ण करने के लिए अनुष्ठान व्रत एवं पूजन करते हैं। वर्तमान समय में माँ पाटेश्वरी देवी का यह मंदिर 51 शक्तिपीठोंमें से एक है। इसका अपना एक विशेष महत्व है। कन्या कुमारी से लेकर बंगाल, बिहारसहित पड़ोसी देश नेपाल तक के श्रद्धालु अपनी मनोकामना पूरी करने के लिए इस मंदिर पर अपना मत्था टेकने आते हैं। मंदिर पर मुख्यतः प्रसाद के रूप में चुनरी, नारियल आदि चढ़ाया जाता है। मन्दिर की विशिष्टता की ही वजह से इसे देवी पाटन के नाम से भी जाना जाता है।
देवी का प्रतिमा
पाटेश्वरी मंदिर के अंत:कक्ष: में कोई प्रतिमा नहीं है। वरन चांदी जड़ित गोल चबूतरा है, जिस पर कपडा बिछा रहता है। उसी के ऊपर ताम्रछत्र है। जिस पर पूरी दुर्गा सप्तसती के श्लोक अंकित है। उसके नीचे अनेक रजत छत्र है। वहां घी की अखण्ड दीपज्योति जलती रहती है। मंदिर की परिक्रमा में मातृ्गणों के यंत्र विधमान है। मंदिर के उत्तर में सूर्यकुण्ड है, जहां रविवारको षोडशोपचार पूजन करने से कुष्ठरोगका निवारण होता है। तथा अखण्ड धूनी भी जलती रहती है। देवीपाटन मंदिर में शैलपुत्री, ब्रह्मचारिणी, चन्द्रघंटा, कूष्मांडा, स्कन्दमाता, कात्यायनी, कालरात्रि, महागौरी तथा सिद्धीदात्रीनौ दुर्गा की प्रतिमायें स्थापित है। इस शक्तिपीठ में स्थापना काल से ही दीपक प्रज्ज्वलित हो रहा है जिसे अखण्ड ज्योति कहा जाता है। शारदीय नवरात्रि के प्रथम दिन से ही पड़ोसी देश नेपाल व देश के कई क्षेत्रों से आये देवीभक्त नारियल, चुनरी, लावा, नथुनी, सिन्दूर, मांगटीका, चूड़ी, बिछिया, पायल, कपूर, धूप, लौंग, इलाइची, पुष्प, चरणामृत और प्रमुख रुप से रोट का प्रसाद चढाकर मां का शृंगार करने के साथ हवन पूजन वैदिक रीति से करते हैं। वर्तमान में नाथ सम्प्रदाय के मंहथ योगी कौसलेन्द्रनाथ जी महाराज यहां के महंत व व्यवस्थापक है।
पौराणिक कथाएँ
पाटेश्वरी देवी के नाम से विख्यात इस मंदिर का इतिहास रोचकता व चमत्कारों से भरा है। लोकश्रुति के अनुसार त्रेतायुगमें भगवान श्रीरामअपनी अर्धांगिनी देवी सीताको राक्षस रावणके संहार के बाद जब अयोध्यालाये तो उन्हें पुन: अग्नि परीक्षा देनी पड़ी। हालांकि लंकामें ही उन्होंने अग्निमें प्रवेश कर परीक्षा दे दी थी। सीता को काफ़ी दु:ख हुआ। माता सीता ने अपनी माता धरती से विनय किया कि यदि वह वास्तव में सतीहैं तो यहीं धरती फट जाएं एवं धरती माता उन्हें अपने में समाहित कर लें। इतना कहते ही ज़मीन फट गयी और एक सिंहासन पर बैठकर धरती मां पाताल लोक से ऊपर आयीं। अपनी धरती मां के साथ सीता जी भी पाताललोक चली गयीं। इसलिए इस स्थान का नाम पातलेश्वरी देवी पड़ा, जो कालांतर में पाटेश्वरी देवी नाम से विख्यात हुआ। इस तरह देवीपाटन सिद्ध योगपीठ तथा शक्तिपीठ दोनों है। इसी गर्भगृह पर माता का भव्य मंदिर बना हुआ है। आज भी मंदिर में पाताल तक सुरंग बताई जाती है, जो चांदीके चबूतरे के रूप में दृष्टिगत है। गर्भगृह के ऊपर मां पाटेश्वरी की प्रतिमा व चांदी का चबूतरा के साथ कई रत्नजडित छतर है और ताम्रपत्र पर दुर्गा सप्तशती अंकित है। प्रसाद पहले इसी चबूतरे पर चढ़ाया जाता था लेकिन सुरक्षा की दृष्टि से अब प्रसाद बाहर चढ़ाया जाता है। चबूतरे के पास एक भव्य दुर्गा प्रतिमा स्थापित है।
{✨}~ भगवान शिव को क्रोध शाँति करने के लिए भगवान विष्णु ने लोकहित में अपने सुदर्शन चक्रसे सती के अंगों को 51 भागों में काटकर शिव से अलग कर उनके मोह को शान्त किया। इस दौरान महादेवी सती के कटे अंग व वस्त्र जिन-जिन स्थानों पर गिरे, उन्हें सिद्ध शक्तिपीठ माना गया। इस तरह 51 शक्तिपीठ हैं। लेकिन उपवस्त्रों, उपांगों और आभूषणों के गिरने के स्थानों को मिलाकर ऐसे स्थानों की संख्या 108 है। उन्हीं शक्ति पीठों में से यह एक है। देवीपाटन मंदिर में सती का बायां कंधा वस्त्र (वाम स्कंध वस्त्र) सहित गिरा था, जो सिद्ध शक्तिपीठ कहलाया। इस बात की पुष्टि शास्त्र में उल्लिखित इस श्लोक से होती है -
'पटेन सहित: स्कन्ध:, पपात यत्र भूतले।
तत्र पाटेश्वरी नाम्ना, ख्यातिमाप्ता महेश्वरी।।'
दानवीर कर्ण
एक अन्य पौराणिक कथा के अनुसार माँ पाटेश्वरी के इस पावन पीठ
का इतिहास महाभारत काल से जुड़ा है। मान्यता के अनुसार दानवीर कर्ण ने भगवान परशुराम से इसी स्थान पर स्थित पवित्र सरोवर में स्नान कर शास्त्र विद्या की
शिक्षा ली थी।
इतिहास
यह स्थल कई महापुरुषों
की कर्मस्थली का साक्षी भी है। मंदिर के इतिहास के अनुसार भगवान परशुराम ने यहीं
तपस्या की थी। द्वापर युग में सूर्यपुत्र कर्ण ने भी यहीं भगवान
परशुराम से दिव्यास्त्रों की दीक्षा ली थी। कहते हैं कर्ण मंदिर के उत्तर स्थित
सूर्यकुड में प्रतिदिन स्नान कर उसी जल से देवी की आराधना करते थे। वही परंपरा आज
भी चली आ रही है। इस मंदिर का जीर्णोद्धार राजा कर्ण ने कराया था। औरंगजेब ने अपने सिपहसालार
मीर समर को इसे नष्ट और भ्रष्ट करने का जिम्मा सौंपा था, जो
सफल नहीं हो सका और देवी प्रकोप का शिकार हो गया। उसकी समाधि मंदिर के पूरब में आज
भी अवस्थित है। जनश्रुति के अनुसार सम्राट विक्रमादित्य ने प्राचीन
मंदिर का जीर्णोद्वार कराया था, जिसे औरंगजेब ने ध्वस्त कर
दिया था। तदनंतर नए मंदिर का निर्माण हुआ। कहते है, कि कर्ण
ने यहां परशुराम से ब्रह्मास्त प्राप्त किया था। गुरु गोरक्षनाथ व पीर रत्ननाथ
ने इसी स्थल पर सिद्धि प्राप्त कर आगे चलकर नाथ सम्प्रदाय के प्रणेता बने। सिद्ध
शक्तिपीठ देवीपाटन में शिव कि आज्ञा से महायोगी गोरखनाथ ने पाटेश्वरी पीठ की
स्थापना कर मां की आराधना तथा योगसाधना की थी। ऐसा उल्लेख देवीपाटन के एक शिलालेख से मिलता है।
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें